लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

289 पाठक हैं

प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

दुर्बलता एक पाप है


हिंदूधर्ममें तीन शक्तियों-लक्ष्मी, सरस्वती तथा दुर्गामें गुप्तरूपसे धन, ज्ञान और शारीरिक शक्तियोंकी साधना करनेका गुप्त संकेत छिपा हुआ है। हिंदूधर्ममें शक्तिका बड़ा महत्त्व है। दुर्बलको मुक्ति नहीं मिलती। जबतक साधक शक्तिमान् न बने, तबतक उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। शक्तिमान्का ही संसारमें आदर होता है। शक्तिकी इतनी उपयोगिता देखकर ही हमारे यहाँ शाक्त-धर्मतककी स्थापना हुई है। शक्तिकी देवीको महत्त्व प्रदान करनेके लिये उनके नाना नाम रखे गये-दुर्गा, देवी, चण्डी, काली, भवानी। उन्हें असुरोंको पराजित करनेवाली देवी माना गया हैं। वे धर्मकी स्थापनाके लिये युद्ध करती और अत्याचार, अन्याय, विलास और कामुकताका विनाश करती है। तात्पर्य यह है कि इन सब रूपोंके विधानमें शक्तिके नाना रूपोंका महत्त्व जनताके हृदयतक पहुँचाया गया है। एक युग था जब भारतवासी सुशिक्षित थे और इन प्रतीकोंका अर्थ समझते थे। खेद है कि अब इनका गुप्त भेद विस्मृत हो गया है और केवल बाह्य पूजाकी भावनामात्र शेष रह गयी है, फिर भी इससे शक्तिका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है!

बलवान् बनी! शक्तिकी पूजा करो। जब हम यह सलाह देते हैं, तो हमारा गुप्त मन्तव्य यह होता है कि दुर्बल मत बनो। कमजोर मत बनो।' जिधरसे कमजोरी आती है, उधर ध्यान दो और निर्बलताको दूर भगाओ। अपने शरीर, मन, आत्मामें शक्ति भर लो।

संसारमें अनेक पाप हैं। आप गौको मार देते हैं, तो गोहत्याका जघन्य पाप आपके सिरपर पड़ता है। किसी बच्चेको मार देते हैं, तो बालहत्याके अपराधी होते हैं। किसी ब्राह्मणका वध कर डालते हैं, तो ब्रह्महत्याका पाप लगता है। इसी प्रकार हमारे शास्त्रोंमें अन्य भी अनेक पापोंका उल्लेख है, किंतु एक बहुत बड़ा पाप दुर्बलता है। शरीर, मन या आत्माका कमजोर होना मनुष्यका बहुत बड़ा पाप है। इसका कारण यह है कि दुर्बलताके साथ अन्य भी समस्त पाप एक-एक करके मनुष्यके चरित्रमें प्रविष्ट हो जाते है। दुर्बलता सब प्रकारके पापोंकी जननी है।

यदि आप दुर्बल हैं, शरीरसे कृशकाय और मनमें साहसविहीन हैं, तो अपने या अपने परिवार-पड़ोस इत्यादिपर किये गये अत्याचारको नहीं रोक सकते, न उसके विरुद्ध आवाज ही उठा सकते हैं। पातकी वह है, जो अत्याचार सहता है; क्योंकि उसकी कमजोरी देखकर ही दूसरेको उसपर जुल्म करनेकी दुष्प्रत्ति आती है।

मनुष्यो! दुर्बलतासे बचो! दुर्बलतामें एक ऐसी गुप्त आकर्षणशक्ति है, जो अत्याचारीको दूरसे खींचकर आपके ऊपर अत्याचार करानेके लिये आमन्त्रित करती है। मजबूत तो हमेशा ऐसे कायरकी तलाशमें रहता है। वह प्रतीक्षा करता रहता है कि कब अवसर मिले और कब मैं अपना आतंक जमाऊँ। दूसरे शब्दोंमें यदि आप निर्बल न रहें, तो सबलको अत्याचार करनेका प्रलोभन ही न हो, बेइन्साफीको पनपनेका अवसर ही प्राप्त न हो। जहाँ प्रकाश नहीं होता, वहाँ अन्धकार अपना आसन जमाता है। इसी प्रकार जहाँ निर्बलता, अशिक्षा, अंध-रूढ़िवादिता या किसी प्रकारकी कमजोरी होती है, वहींपर अत्याचार और अन्याय पनपता है।

शक्ति ऐसा तत्त्व है, जो प्रत्येक क्षेत्रमें अपना अद्धृत प्रकाश दिखाता है और संसारको चमत्कृत कर देता है। व्यापार, शिक्षा, स्वास्थ्य, योग्यता-चाहे किसी क्षेत्रमें आप शक्तिका उपार्जन प्रारम्भ कर दें, आप प्रतिभावान् बन जायँगे।

एक विद्वान्के ये वचन अक्षरशः सत्य हैं-'शक्तिकी विद्युत्धारामें ही बल है कि वह मृतक व्यक्ति या समाजकी नसोंमें प्राण-संचार करे और उसे सशक्त एवं सतेज बनाये।'

शक्ति एक तत्त्व है, जिसका आह्वान करके जीवनके विभिन्न विभागोंमें भरा जा सकता है और उसी अंगमें तेज और सौन्दर्यका दर्शन किया जा सकता है। शरीरमें शक्तिका आविर्भाव होनेपर देह कुन्दन-जैसी चमकदार, हथौड़े-जैसी गठी हुई, चन्दन-जैसी सुगन्धित एवं अष्टधातु-सी नीरोग बन जाती है। बलवान् शरीरका सौन्दर्य देखते ही बनता है। मनमें शक्तिका उदय होनेपर साधारण-से-साधारण मनुष्य कोलम्बस, लेनिन, गाँधी-जैसी हस्ती बन जाते है और बड़े-बड़े महापुरुषोंके समान असाधारण कार्य अपने मामूली शरीरोंद्वारा ही करके दिखा देते हैं। बुद्धिका बल महान् है। तनिक-से बौद्धिक बलकी चिनगारी बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानोंकी रचना करती है और वर्तमान युगमें वैज्ञानिक आविष्कारकी भांति चमत्कारिक वस्तुओंमें अनेकानेक वस्तुएँ निर्माण कर डालती है। अधिक बलका थोड़ा-सा प्रसाद हमारे आस-पास चकाचौंध उत्पन्न कर देता है। आत्माकी मुक्ति भी ज्ञान, शक्ति एवं साधनासे होती आयी है। अकर्मण्य और निर्बल मनवाला व्यक्ति आत्मोद्धार नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि लौकिक और पारलौकिक सब प्रकारके दु:खद्वन्द्वोंसे छुटकारा पानेके लिये शक्तिकी ही उपासना करनी पड़ेगी।

शक्तिमान् बनिये। जीवनके हर क्षेत्रमें लोग पुकार-पुकारकर आपको शक्ति अर्जित करनेकी सलाह दे रहे हैं। जो जिस मात्रामें शक्ति प्राप्त कर लेता है, वह उतना ही समुन्नत समझा जाता है। उन्नतिका रहस्य शक्ति-संचयका ही मार्ग है।

भगवान् शंकराचार्यके ये वचन स्मरण रखिये, 'शक्तिके बिना (अर्थात् बलवान् बने बिना) शिवका स्पन्दन नहीं होता। शिवकी उन्नति देहकी सहायतासे होती है, वैसे ही शिव-तत्त्वका स्पन्दन शक्तिद्वारा होता है। यदि भक्तिके बिना ईश्वर नहीं, तो शक्तिके बिना शिव नहीं मिलते-अर्थात् कल्याणका मार्ग प्राप्त नहीं होता। ब्रह्मप्राप्तिमें-आत्मिक उन्नतिमें भगवती आद्या-शक्तिकी सहायता आवश्यक है।'

मित्रो! आपके शरीरमें, मनमें, आत्मामें उच्च कोटिकी शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। सतत परिश्रमसे इनका विकास कीजिये। ये अतीव आवश्यक हैं, ये आपकी वैयक्तिक सम्पत्तियाँ हैं। पर इनके अतिरिक्त दो शक्तियाँ और हैं, जिनकी आपको विशेष आवश्यकता है-(१) अर्थ-शक्ति, (२) संगठन-शक्ति। हम जिस युगमें रह रहे है, वह रुपये-पैसेका युग है। पैसेके बलसे समस्त उन्नतिके साधन, सुख-समृद्धि इस भूलोकमें मिल सकती है। संगठन-बलमें गजबकी ताकत है। आज जो प्रान्त, जो देश संगठित है, वही शक्तिशाली है। एक-एक सू, मिलकर मोटी मजबूत रस्सी बनती है, एक-एक बूँदसे तालाब बनता है, एक-एक पैसेके संग्रहसे मनुष्य सम्पत्तिमान् बनता है; एक-एक व्यक्तिका बल संगठित होकर ग्यारह मनुष्योंका बल बन जाता है। अतः सच्चे दिलसे, सच्चे कामोंके लिये, सद् उद्देश्योंकी प्राप्तिके लिये संगठित हूजिये। मित्रताएँ कायम कीजिये और जितने अधिक लोगोंसे सम्भव हो एकता, मेल या सम्पर्क स्थापित कीजिये। बस, आप उसी अनुपातमें शक्तिशाली बन जायँगे। मेलसे एक ऐसा केन्द्र स्थापित होता है, जिसमें सब एक-दूसरेको सेवा, सहयोग और सहायता देते हैं। इस पारस्परिक आदान-प्रदानसे मनुष्यकी शक्ति बहुत बढ़ जाती है।

आचार्य श्रीराम शर्माजीके ये शब्द बहुमूल्य हैं-'जो व्यक्ति किसी विशेष दिशामें महत्त्व प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें चाहिये कि अपने इच्छित मार्गके लिये शक्ति-सम्पादन करें। सभी लगन और निरन्तर प्रयत्न-यही दो महान् साधनाएँ हैं, जिनसे भगवती शक्तिकोप्रसन्न करके उनसे इच्छित वरदान प्राप्त किया जा सकता है। आपने अपना जो भी जीवनोद्देश्य बनाया है, उसे पूरा करनेमें जी-जानसे जुट जाइये। सोते-जागते उसीके सम्बन्धमें सोच-विचार करते रहिये और आगेका मार्ग तलाश करते रहिये। परिश्रम, परिश्रम, घोर परिश्रम आपकी आदतमें शामिल होना चाहिये। स्मरण रखिये, अपना कोई भी मनोरथ क्यों न हो, वह शक्तिद्वारा ही पूर्ण हो सकता है। इधर-उधर बगलें झाँकनेसे कुछ नहीं हो सकता।'

वेदोंने शक्ति-उपार्जनका दिव्य संदेश दिया था, जो आज भी इस भारतभूमिके कण-कणसे गुंजरित हो रहा है।

यजुर्वेदमें कहा गया है-'क्षिपो मृजन्ति' अर्थात् पुरुषार्थी लोग ही पवित्र होते हैं और पवित्र कार्य करते हैं।

स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसः। (शु. य० २५। २१)

अर्थात् बलवान् अवयवोंद्वारा ही ईश्वरकी उपासना करेंगे।

आ राष्ट्रे राजन्यः सूर इषव्यो अतिव्याधी महारथो जायतान्।

(सु० य० २२। २२)

अर्थात् 'हमारे राष्ट्रमें शूरलोग उत्तम प्रभावशाली वीर बनें।'

उग्राय तपसे सुवृत्तिं प्रेरय।

'श्रेष्ठ बलसे लिए उत्तम भाषण और उत्तम करो।'

आवहि श्रेयांसमति समं माम।

'हे मनुष्य! अपने समान लोगोंमें आगे बढ़ और श्रेयको प्राप्त कर।'

असश्चतः शतथारा अभिश्रिय:।  (ऋ० ९१८६। २७)

सतत परिश्रम करनेवालेको सैकड़ों प्रवाहोंसे यश प्राप्त होता है।'

दृते दृहमां, ज्योक्ते संवृशि जीव्यासम्।

ज्योक्ते संदृशि जीव्यासम्।। (शु० य० ३६। १९)

'हे समर्थ परम दृढ़ परमेश्वर! मुझे दृढ़ बना दे, जिससे मैं तेरे संदर्शनमें, तेरी ठीक दृष्टिमें चिरकालतक जीता रहूँ। तेरे सम्यक् दर्शनमें दीर्घ आयुतक जीता रहूँ। अन्तमें एक बार फिर हम आपको यही सलाह देंगे कि इस संसारमें आप जहाँ हों, जिस परिस्थितिमें हों, जीवनके किसी क्षेत्रमें अग्रसर हो रहे हों, उसी प्रकारकी शक्ति अर्जन कीजिये। इस संसारमें दुर्बलता सबसे बड़ा महाघोर पाप है। दुर्बक्को सब कोई दबाता है। कमजोर सर्वत्र नारकीय यन्त्रणाएँ भोगते देखे जाते है। यहाँतक कि निर्बक्की मुक्तितक नहीं होती-

'नायमात्मा बलहीनेन लथ्यः' (मु० उ० ३। २। ४ )

'यह आत्मा निर्बलोंको प्राप्त नहीं होता।'

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

Prev
Next
Prev
Next

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book